Monday, 17 September 2018

सन्तान या पुत्र-पुत्री?


शायद हमारा पुरातन समाज ही ज़्यादा समझदार और आधुनिक था.तब तो कहीं कभी “बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ” जैसे कार्यक्रम कर के समाज को जागृत करने का काम नहीं होता था,आज के ज़माने में हम आए दिन ऐसे कार्यक्रम देखते रहते हैं.कुछ दिनो पहले social media पे मैं देख रही थी सभी अपने whatsapp या fb के status पर “मेरी बेटी मेरा अभिमान” की pic लगा रहे थे,पहले तो ऐसा नहीं होता था,और मुझे नहीं लगता की ऐसा कुछ करने से समाज की सोच बदली जा सकती है.इस को बदलने का इक ही तरीक़ा है,और वो ये की हर व्यक्ति और हर परिवार अपनी सोच और आदतों में परिवर्तन लायें. मैं समझती हूँ की किसी भी समाज को बदलने के लिए किसी बडे कार्यक्रम से अधिक कारगर है की आप अपने आप को व अपनी सोच को बदलें,समाज स्वयं बदल जायेगा. यदि इतिहास उठा कर देखें तो चिर-पुरातन समाज में स्त्री और पुरुष को समान अधिकार थे.और वास्तविकता भी यही है की दोनों इक दूसरे के पूरक है. यदि दोनों में समानता और समागम नहीं होगी तो सृष्टि की रचना सम्भव ही नहीं है. कहने का अर्थ इतना ही है की जितनी आवश्यकता इक पुरुष की है उतनी ही इक स्त्री की भी,नहीं तो सृष्टि का विकास ही रुक जायेगा और इसे हमारे पूर्वज बहुत अच्छे से समझते थे शायद हम ही समझ नहीं पा रहे. इसी लिए वो सन्तान की उत्पत्ति को बहुत आवश्यक व शुभ मानते थे और ऐसे अवसर पर ख़ुशियाँ मानते थे.मध्यकाल तक आते आते समाज को व्यवस्थित रूप से चलाने के लिए कुछ नियम और क़ानून बनाए गए जिनका विस्तार से वर्णन यहाँ सम्भव नहीं किंतु वहाँ भी कभी स्त्री को दोयम दर्जे का या नीचा नहीं समझा गया, पर बीच में बहुत कुछ और होता गया,कभी यवनों का तो कभी मुग़लों का शासन रहा तो स्वाभाविक है की उनके रीति-रिवाजों का हमारे समाज पर भी बहुत असर हुआ और पर्दा प्रथा,स्त्रियों को बंधन में रखना, दहेज आदि बहुत सी ग़लत परम्पराओं का प्रचलन हो गया.ऐसी ही बहुत सी कुरीतियों के कारण शायद लोग पुत्र और पुत्री में भेद-भाव करने लगे. अतः जहाँ सन्तान महत्वपूर्ण थी वहीं पुत्र महत्वपूर्ण हो गया. इसी लिए हमारे लोक गीतों में अधिकतर पुत्र जन्म और उसकी बधाई का ही वर्णन होता है, शायद ही कहीं पुत्री के जन्म का संदर्भ लोक गीतों में आता है. ऐसी ही भ्रांति व्रत को ले कर भी है,जब हमारे समाज की रचना हो रही थी कुछ रीति-रिवाज व त्योहार की संकल्पना की जा रही थी तभी कुछ अवसरों पर सन्तान के लिए व्रत रखने की परम्परा बनी,लेकिन कालांतर में ये पुत्र व्रत की परम्परा तक ही सीमित हो गयी, जिसे की आज की अपने आप को बहुत आधुनिक और updated समझने वाली औरतें भी करती हैं,तो यहाँ आप को समझदारी दिखाने की आवश्यकता है,आप समझें, की व्रत सन्तान के लिए होता है ना की केवल पुत्र के लिए. लकीर का फ़क़ीर बनने की बजाय आप स्वयं समझें की सन्तान महत्वपूर्ण है चाहे वो पुत्र हो या पुत्री. यदि आप अपने बेटे के लिए व्रत रखती है तो अपनी बेटी के लिए भी रखें,समाज बदलेगा भी और विकसित भी होगा. मैं अपने blog पर लिखने के लिये कुछ पुत्री जन्म से सम्बंधित गीत ढूँढ रही थी, बड़ी मुश्किल से इक,दो गीत मिले जो आप से साझा कर रही हूँ.

                                 
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“हमरे बिटिया”

हमरे भयी बिटिया
ऐ टोपी वाले हमार भयी बिटिया...२

देवरनियाँ जेठनियाँ के भैले बेटौवा
देवरनियाँ...२
हमार भयी बिटिया
ऐ टोपी वाले हमरे भयी बिटिया
ऐ टोपी...२

देवरनियाँ जेठनिया तो काम करी
करी मरिहैं
देवरनियाँ....२
हमार करी बिटिया ऐ टोपी वाले
हमार करी बिटिया...२
हमरे भयी बिटिया
ऐ टोपी....२

देवरनियाँ जेठनिया के आइहैं
पतोहिया
देवरनियाँ.....२
हमार आयी दमदा ऐ टोपी वाले
हमार आयी दमदा...२
हमरे भयी बिटिया
ऐ टोपी....२

देवरनियाँ जेठनिया के लडीहें
पतोहिया
देवरनियाँ....२
हमार हँसी दमदा ऐ टोपी वाले
हमार हँसी दमदा....२
हमरे भयी बिटिया
ऐ टोपी...२

हमरे भयी बिटिया
ऐ टोपी वाले हमार भयी बिटिया .

                           
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“काहे रोवे गुड़िया”

काहे के रोवे बिटिया
सबेरे घुनघुन वाँ मँगाई देब हो
काहे रोवे...२

दादा से कहिबे दादी से कहिबे
दादा....२
चाचा से बोले गुड़िया
सबेरे घुनघुन वाँ मँगाई देब हो...२
काहे रोवे...२

अम्माँ से कहिबे बाबा से कहिबे
अम्माँ...२
भैया से बोले रे रनिया
सबेरे घुनघुन वाँ मँगाई देब हो...२
काहे रोवे....२

मामा से कहिबे मामी से कहिबे
मामा....२
मौसी से बोले गुड़िया
सबेरे घुनघुन वाँ मँगाई देब हो...२
काहे रोवे....२

भैया से कहिबे भाभी से कहिबे
भैया...२
दीदी से बोले रे गुड़िया
सबेरे घुनघुन वाँ मँगाई देब हो...२
काहे रोवे...२

काहे के रोवे मोरी गुड़िया
सबेरे घुनघुन वाँ मँगाई देब हो
काहे के रोवे...२

                             
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“तीत लागे”

तीत लागे तीत लागे कडु लागे हो
हरिरा पिया नहीं जाये
हरिरा कडु लागे हो.....२

सास रिसीयीहें हमार का करिहे
सास...२
बहुत करिहे तो देवता ना मनाईंहैं...२
देवता मनाने मेरी अम्माँ आए हो...२
हरिरा पिया....२
तीत लागे....२

जिठनि रिसीयीहें हमार का करिहे
जिठनि.....२
बहुत करिहे तो पीपली ना पिसैहै...२
पीपली पिसाने मेरी भाभी आए हो...२
हरिरा पिया...२
तीत लागे.....२

ननद रिसीयीहें हमार का करिहे
ननद...२
बहुत करिहे तो कजला ना लगैहे...२
कजला लगाने मेरी बहना आए हो..२
हरिरा पिया...२
तीत लागे....२

तीत लागे तीत लागे कडु लागे हो
हरिरा पिया नहीं जाए
हरिरा कडु लागे हो.

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