दशहरा, जैसे की मैं पहले ही बता चुकी हूँ की मेरा प्रिय त्योहार होता था. मेला, रामलीला, मौज - मस्ती, चचेरे-ममेरे भाई बहनो के साथ बेफ़्रिक्री से बिताए वो दिन मुझे आज भी गुदगुदा देते हैं. उस मेले को याद करती हूँ तो बहुत खट्टी-मीठी यादें मन के दरवाज़े पे दस्तक देने लगते हैं.
पहले बात करते है रामलीला में होने वाले "भरत मिलाप" की. उस दिन मंच पर रामलीला से हट कर कोई और ही प्रसंग पर नाटक का मंचन किया जाता था. बाहर से जो मंडली आयी होती थी वो तो रहते ही थे, पर हमारे परिवार के कई सदस्य भी रामलीला व अन्य मंच पर होने वाले कई कार्यक्रमों में हिस्सा लेते थे. कभी मामी जी तो कभी "जिया"( बड़ी बहन ) अपनी कोई सुंदर सी साड़ी खोज खोज के परेशान होती थीं, बाद में पता लगता था की साड़ियाँ तो भाई लोग ले गए क्यूँकी शाम को उन्हें कभी सीता, कभी मंदोदरी या कोई भी स्त्री पात्र निभाना होता था इसलिए भाई लोग बड़ों की आँखो में धूल झोंक कर सुंदर साड़ियाँ पर "डाका" डाल देते थे.
एक बार भरत मिलाप के दिन महाभारत का नाटक मंच पर खेला जा रहा था. द्रौपदी के चीर हरण का दृश्य होने वाला था. जो स्थानीय पुरुष कलाकार द्रौपदी का "role" कर रहा था, उसे नौ साड़ियाँ पहनायी गयी थी और बताया गया था की आठ साड़ियाँ चीर हरण के दृश्य में दुशासन द्वारा उतारी जायेंगी, नवीं साड़ी छोड़ दी जायेगी ये दिखाने के लिए की अब श्री कृष्ण लाज बचा लेने के लिए चीर बढ़ा देंगे. यही स्थिति दुशासन बने पात्र को भी समझा दी गयी थी, सब तैयार थे तभी किसी और कलाकार को साड़ी की कमी पड़ गयी तो वो द्रौपदी की नौ में से एक साड़ी अपने पहनने के लिए ले गया, यानी द्रौपदी ने अब आठ साड़ियाँ ही पहनी थीं. ख़ैर, नाटक शुरू हुआ और चीर हरण का दृश्य आया, दुशासन को साड़ी की कमी वाली बात नहीं पता थी, वो चीर हरण करने लग गया सात तक तो ठीक था लेकिन आठवीं साड़ी खीचने पर द्रौपदी बना कलाकार घबरा गया और लाज बचाओ की ज़बरदस्त गुहार लगाने लगा सबको लग रहा था की आज ये कितनी उम्दा "acting" कर रहा है सारे दर्शक साँस रोके देख रहे थे, पर उसकी लाख गुहार ना मान कर दुशासन ने आठवीं साड़ी भी खींच दी तो सामने दृश्य था की द्रौपदी पटरे वाले "under wear" में खड़ी थी. नीचे से वस्त्र विहीन ऊपर ब्लाउज़,मुकुट और साज सज्जा, हँसते-हँसते मुझ समेत सभी दर्शक लोट पोट हो गए थे. बेचारा द्रौपदी बना कलाकार उसका तो सचमुच ही भरी सभा में चीर हरण हो गया. ये क़िस्सा याद कर हम आज भी ख़ूब हँसते है. ऐसे अनेक क़िस्से है, असल में कलाकार स्थानीय होते थे बजट की कमी होती थी इस लिए ऐसी कई समस्याए हो जाती थीं, पर मनोरंजन तो भरपूर होता था और यादें अभी तक मन में ताज़ा हैं.
मेले वाले दिन बड़ी गहमा गहमी होती थी. दिन भर मेला और शाम को रावण दहन का कार्यक्रम होता था, हम सब सुबह से ही अपने नए कपड़े और मेले में क्या क्या ख़रीदना है इस पर मिल कर गोल मेज़ जैसी "conference" में व्यस्त होते थे. फिर बारी आती थी मेला देखने के लिए पैसे मिलने की, दोनो मामा मामी और भी बड़ों से कड़क दस दस का नोट पा कर हम फूले नहीं समाते थे,"आज मैं ऊपर आस्माँ नीचे " वाली "feeling" होती थी. ख़ुश-ख़ुश मन से हम टोली बना कर मेले का आनंद लेने जाते थे. मेले में एक ओर राम जी,व दूसरी ओर रावण का दरबार भी बना रहता था,और पीछे खड़ा होता था दस मुँह वाला रावण का पुतला. अधिकतर हमारे ममेरे बड़े भाई उस दिन राम बनते थे और पूरे मेले के दौरान, सादे सरल गाँव वाले उन्हें राम जी का रूप मान कर उनके चरण स्पर्श कर कुछ चढ़ावा चढ़ा कर आशीर्वाद ले जाते थे. ये सब देख हमें मन ही मन ख़ूब मज़ा आता था, लगता था, अरे अभी कल ही तो भैया सही से नहीं पढ़ने के लिया मामा जी से डाँट खा रहे थे और आज राम जी बन कर "attitude" दिखा रहे हैं. बड़ा मज़ेदार अनुभव होता था.
अब शुरू होता था मेला दर्शन, बड़ा ही विचित्र और मनभावन दृश्य होता था, कहीं तेल में जलेबी छन रही है तो कहीं समोसे. कहीं चाट बिक रही है तो कहीं बुनिया, बताशा. कान फाड़ू फ़िल्मी गाने लगातार बजते रहते थे. हम सभी एक दूसरे का हाथ पकड़ हर दुकान का मुआयना करते. कपड़े, साज सिंगार का सामान, मिट्टी के खिलौने, हीरो हीरोईन के पोस्टर, नक़ली ज़ेवर से ले कर चूरन-चटनी तक का सामान मिलता था. वैसे तो हम शहर में रहते थे पर उस गँवई मेले का रस हमें बड़ा आनंदित करता था. आज के इस परिष्कृत "mall" वाले माहौल में उस धूल उड़ते मेले में चाट खाने के बारे में तो आप सोच भी नहीं पायेंगे, पर हम ने बड़ा मज़ा किया है और वो बातें याद कर बीता हुआ एक एक पल सजीव हो जाता है. घूम घूम कर हम अपनी पसंद की चीज़ें लेते, झूला झूलते मस्ती करते और अंत में आनंद लेते उस दृश्य का जब शाम को राम जी बाण चला कर रावण के पुतले को जला देते, ढोल नगाड़े ,जय सिया राम के जय कारे और जलते हुए पुतले से आती बम-पटाखों की आवाज़,और आकाश को छूती आग की लपटे सच में अद्भुत अनुभव था. इसी के साथ मेला समाप्त होता था और थके हारे हम भी अपनी ख़रीदी चीज़ें लिए घर आ कर सो जाते थे.
लेकिन राम जी की, राम लीला की इतनी बातें हुयी हैं तो एक राम भजन तो होना ही चाहिये, तो लीजिए मेरे favourite में से एक आप के साथ share कर रही हूँ.
"झाँकी सीता-राम की"
आओ बसायें मन मंदिर में झाँकी सीता-राम की,
जिसके मन में राम नहीं वो काया है किस काम की,
आओ बसायें.
गौतम नारी अह्लिया सारी,श्राप मिला अति भारी था,
शिला रूप से मुक्ति पायी चरण राम ने डाला था,
मुक्ति मिली तब वो बोली,जय जय सीता-राम की,
जिसके मन में राम नहीं,
आओ बसायें.
जाति पाती का तोड़ के बंधन,शबरी मान बढ़ाया था,
हँस हँस खा के बेर प्रेम से,राम ने ये फ़रमाया था,
जाति पाती का.
हँस हँस .
प्रेम भाव का भूखा हूँ,चाह नहीं इस चाम की,
जिसके मन में राम नहीं.
आओ बसायें.
सागर में लिख राम नाम,नल नील ने पत्थर तैराये,
इसी नाम से हनुमान जी सीता मैया की सुध लाए,
भक्त विभीषण के मन में तब जोत जगी श्री राम की,
जिसके मन में राम नहीं.
आओ बसायें.
दयालु बन कर मेरे प्रभु ने,भक्तों का दुःख टाला था,
कृपालु बन के मेरे राम ने दुष्टों को संहारा था,
आओ मिल कर महिमा गायें,जय जय जय श्री राम की,
जिसके मन में राम नहीं,वो काया है किस काम की,
आओ बसायें मन मंदिर में झाँकी सीता-राम की,
जिसके मन में राम नहीं.
आओ बसायें.